भ्रष्ट मानवता को आवश्यकता है परमेश्वर द्वारा उद्धार की
मसीह के दिव्य तत्व को कोई कैसे जान सकता है?
संदर्भ के लिए बाइबल के पद:
"यीशु ने उससे कहा, 'मार्ग और सत्य और जीवन मैं ही हूँ; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुँच सकता। यदि तुम ने मुझे जाना होता, तो मेरे पिता को भी जानते; और अब उसे जानते हो, और उसे देखा भी है'" (यूहन्ना 14:6-7)।
"ये बातें जो मैं तुम से कहता हूँ, अपनी ओर से नहीं कहता, परन्तु पिता मुझ में रहकर अपने काम करता है। मेरा विश्वास करो कि मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में है; नहीं तो कामों ही के कारण मेरा विश्वास करो" (यूहन्ना 14:10-11)।

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
"ऐसी बात का अध्ययन करना कठिन नहीं है, परंतु इसके लिए हममें से प्रत्येक को इस सत्य को जानने की ज़रूरत है: जो देहधारी परमेश्वर है, वह परमेश्वर का सार धारण करेगा, और जो देहधारी परमेश्वर है, वह परमेश्वर की अभिव्यक्ति धारण करेगा। चूँकि परमेश्वर देहधारी हुआ, वह उस कार्य को प्रकट करेगा जो उसे अवश्य करना चाहिए, और चूँकि परमेश्वर ने देह धारण किया, तो वह उसे अभिव्यक्त करेगा जो वह है, और मनुष्यों के लिए सत्य को लाने में समर्थ होगा, मनुष्यों को जीवन प्रदान करने, और मनुष्य को मार्ग दिखाने में सक्षम होगा। जिस शरीर में परमेश्वर का सार नहीं है, निश्चित रूप से वह देहधारी परमेश्वर नहीं है; इस बारे में कोई संदेह नहीं है। यह पता लगाने के लिए कि क्या यह देहधारी परमेश्वर है, मनुष्य को इसका निर्धारण उसके द्वारा अभिव्यक्त स्वभाव से और उसके द्वारा बोले वचनों से अवश्य करना चाहिए। कहने का अभिप्राय है कि वह परमेश्वर का देहधारी शरीर है या नहीं, और यह सही मार्ग है या नहीं, इसे परमेश्वर के सार से तय करना चाहिए। और इसलिए, यह निर्धारित करने[a] में कि यह देहधारी परमेश्वर का शरीर है या नहीं, बाहरी रूप-रंग के बजाय, उसके सार (उसका कार्य, उसके वचन, उसका स्वभाव और बहुत सी अन्य बातें) पर ध्यान देना ही कुंजी है। यदि मनुष्य केवल उसके बाहरी रूप-रंग को ही देखता है, उसके तत्व की अनदेखी करता है, तो यह मनुष्य की अज्ञानता और उसके अनाड़ीपन को दर्शाता है।"
"परमेश्वर के वचन को पढ़कर और समझकर कर परमेश्वर को जानना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं: "मैंने देहधारी परमेश्वर को नहीं देखा है, तो मैं परमेश्वर को कैसे जान सकता हूँ?" परमेश्वर का वचन वास्तव में परमेश्वर के स्वभाव की एक अभिव्यक्ति है। आप परमेश्वर के वचन से मानवजाति के लिए परमेश्वर के प्रेम और उनके उद्धार के साथ-साथ यह भी देख सकते हैं कि वे किस तरह से उन्हें बचाते हैं...। क्योंकि परमेश्वर का वचन, स्वयं परमेश्वर के द्वारा व्यक्त किया जाता है, उसे लिखने के लिए किसी मनुष्य का उपयोग नहीं किया जाता है। यह व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर के द्वारा व्यक्त किया जाता है। यह स्वयं परमेश्वर है जो अपने स्वयं के वचनों और अपने भीतर की आवाज़ को व्यक्त कर रहा है। ऐसा क्यों कहा जाता है कि वे दिल से महसूस किए जाने वाले वचन हैं? क्योंकि वे बहुत गहराई से निकलते हैं, और परमेश्वर के स्वभाव, उनकी इच्छा, उनके विचारों, मानवजाति के लिए उनके प्रेम, उनके द्वारा मानवजाति के उद्धार, तथा मानवजाति से उनकी अपेक्षाओं को व्यक्त कर रहे हैं। परमेश्वर के वचनों में कठोर वचन, शांत एवं कोमल वचन, कुछ विचारशील वचन हैं, और कुछ प्रकाशित करने वाले वचन भी हैं जो इंसान की इच्छाओं के अनुरूप नहीं हैं। यदि आप केवल प्रकाशित करने वाले वचनों को देखेंगे, तो आप महसूस करेंगे कि परमेश्वर काफी कठोर है। यदि आप केवल शांत एवं कोमल वचन को देखेंगे, तो आप महसूस करेंगे कि परमेश्वर के पास ज़्यादा अधिकार नहीं है। इसलिए इस विषय में आपको सन्दर्भ से बाहर होकर नहीं समझना चाहिए, आपको इसे हर एक कोण से देखना चाहिए। कभी-कभी परमेश्वर शांत एवं करुणामयी दृष्टिकोण से बोलता है, और लोग मानवजाति के लिए परमेश्वर के प्रेम को देखते हैं; कभी-कभी वह कठोर दृष्टिकोण से बोलता है, और लोग परमेश्वर के अपमान न सहन करने वाले स्वभाव को देखते हैं। मनुष्य बुरी तरह से गंदा है और परमेश्वर के मुख को देखने के योग्य नहीं है, और परमेश्वर के सामने आने के योग्य नहीं है। लोगों का परमेश्वर के सामने आना अब पूरी तरह परमेश्वर के अनुग्रह से ही संभव है। जिस तरह परमेश्वर कार्य करता है और उसके कार्य के अर्थ से परमेश्वर की बुद्धि को देखा जा सकता है। भले ही लोग परमेश्वर के सीधे सम्पर्क में न आएँ, तब भी वे परमेश्वर के वचनों में इन चीज़ों को देखने में सक्षम होंगे। जब परमेश्वर की सच्ची समझ वाला कोई व्यक्ति मसीह के सम्पर्क में आता है, तो परमेश्वर के बारे में उसकी मौजूदा समझ उनके साथ मेल खा सकती है, किन्तु जब केवल सैद्धान्तिक समझ वाला कोई व्यक्ति परमेश्वर के सम्पर्क में आता है, तो वह इस संबंध को नहीं देख सकता है। सत्य का ये पहलू सबसे गम्भीर रहस्य है, जिसकी गहराई को नापना कठिन है। उन वचनों का सार निकालिए जिन्हें परमेश्वर देहधारण के रहस्य के विषय में कहते हैं, विभिन्न कोणों से उन्हें देखिए, फिर अपने बीच इन चीज़ों की चर्चा कीजिए। आप साथ मिलकर प्रार्थना कर सकते हैं, इन चीज़ों पर बहुत अधिक विचार और चर्चा कर सकते हैं। कदाचित् पवित्र आत्मा आपको प्रबुद्ध करे और आपको समझ दे। ऐसा इसलिए है क्योंकि मनुष्य के पास परमेश्वर के सम्पर्क में आने का कोई अवसर नहीं है, मनुष्य को एक बार में अपने मार्ग का थोड़ा सा एहसास करने, तथा परमेश्वर की सच्ची समझ हासिल करने के लिए इस तरीके से अनुभव करने पर भरोसा रखना चाहिए।"
"मनुष्य के द्वारा परमेश्वर के वचन को अनुभव करने की प्रक्रिया असल में परमेश्वर के वचनों के देह में प्रकट होने के बारे में जानने की प्रक्रिया के समान है। मनुष्य जितना अधिक परमेश्वर के वचनों को अनुभव करता है, उतना ही अधिक परमेश्वर के आत्मा के बारे में जानता है; परमेश्वर के वचनों के अनुभव के द्वारा, मनुष्य आत्मा के कार्य के सिद्धांतों को समझता है और व्यावहारिक परमेश्वर स्वयं के बारे में जान जाता है। वास्तविकता में, जब परमेश्वर मनुष्य को पूर्ण बनाता और प्राप्त करता है, तो वह उन्हें व्यावहारिक परमेश्वर के कामों के बारे में बता रहा होता है; वह व्यावहारिक परमेश्वर के कार्य का उपयोग लोगों को देह धारण का असल महत्व दिखाने और यह दिखाने के लिए कर रहा होता है कि परमेश्वर का आत्मा मनुष्य के सामने वास्तव में प्रकट हुआ है।"
"यद्यपि देहधारी परमेश्वर का रूप-रंग ठीक मनुष्य के समान है, फिर भी वह मानवीय ज्ञान को सीखता है और मानवीय भाषा बोलता है और कभी-कभी अपने मतों को मनुष्यजाति के उपायों या अभिव्यक्तियों के माध्यम से भी व्यक्त करता है, जिस तरह से वह मनुष्यों, और चीज़ों के सार को देखता है, और जिस तरह से भ्रष्ट लोग मनुष्यजाति और चीज़ों के सार को देखते हैं वे बिल्कुल एक-से नहीं हैं। उसका परिप्रेक्ष्य और वह ऊँचाई जिस पर वह खड़ा होता है वह कुछ ऐसा है जो किसी भ्रष्ट व्यक्ति के द्वारा अप्राप्य है। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर सत्य है, और जिस देह को वह पहनता है वह भी परमेश्वर के सार को धारण करता है, और उसके विचार तथा जो उसकी मानवता के द्वारा प्रकट किया जाता है वे भी सत्य हैं। भ्रष्ट लोगों के लिए, जो कुछ वे देह में व्यक्त करते हैं वे सत्य के, और जीवन के प्रावधान हैं। ये प्रावधान केवल एक व्यक्ति के लिए नहीं हैं, बल्कि पूरी मनुष्यजाति के लिए हैं। किसी भी भ्रष्ट व्यक्ति के लिए, उसके हृदय में केवल थोड़े से ही वे लोग ही होते हैं जो उससे सम्बद्ध होते हैं। केवल कुछ ही ऐसे लोग होते हैं जिनके बारे में वह चिन्ता करता है, या जिनकी वह परवाह करता है। जब आपदा आने ही वाली होती है, तो वह सबसे पहले अपने बच्चों, जीवन साथी, या माता-पिता के बारे में सोचता है, और एक अधिक लोकहितैषी व्यक्ति अधिक से अधिक कुछ रिश्तेदारों या किसी अच्छे मित्र के बारे में सोचता है; क्या वह अधिक सोचता है? कभी भी नहीं! क्योंकि मनुष्य अंततः मनुष्य ही हैं, और वे सब कुछ एक व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से और ऊँचाई से ही देख सकते हैं। हालाँकि, देहधारी परमेश्वर भ्रष्ट व्यक्ति से पूर्णत: अलग है। देहधारी परमेश्वर का देह कितना ही सामान्य, कितना ही साधारण, कितना ही अधम क्यों न हो, या यहाँ तक कि लोग उसे कितनी ही नीची दृष्टि से क्यों न देखते हों, मनुष्यजाति के प्रति उसके विचार और उसका रवैया ऐसी चीज़ें है जिन्हें कोई भी मनुष्य धारण नहीं कर सकता है, और कोई मनुष्य उसका अनुकरण नहीं कर सकता है। वह हमेशा दिव्यता के परिप्रेक्ष्य से, और सृजनकर्ता के रूप में अपने पद की ऊँचाई से मनुष्यजाति का अवलोकन करेगा। वह हमेशा परमेश्वर के सार और परमेश्वर की मानसिकता से मनुष्यजाति को देखेगा। वह एक औसत व्यक्ति की ऊँचाई से, और एक भ्रष्ट व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से मनुष्यजाति को बिल्कुल नहीं देख सकता है। जब लोग मनुष्यजाति को देखते हैं, तो वे मानवीय दृष्टि से देखते हैं, और वे मानवीय ज्ञान और मानवीय नियमों और सिद्धांतों जैसी चीज़ों को एक पैमाने के रूप में उपयोग करते हैं। यह उस दायरे के भीतर है जिसे लोग अपनी आँखों से देख सकते हैं; यह उस दायरे के भीतर है जिसे भ्रष्ट लोग प्राप्त कर सकते हैं। जब परमेश्वर मनुष्यजाति को देखता है, तो वह दिव्य दर्शन के साथ देखता है, और अपने सार और अपने स्वरूप को एक माप के रूप में लेता है। इस दायरे में वे चीज़ें शामिल हैं जिन्हें लोग नहीं देख सकते हैं, और यहीं पर देहधारी परमेश्वर और भ्रष्ट मनुष्य पूरी तरह से भिन्न हैं। यह अन्तर मनुष्यों और परमेश्वर के भिन्न-भिन्न सार के द्वारा निर्धारित होता है, और ये भिन्न-भिन्न सार ही हैं जो उनकी पहचानों और स्थितियों को और साथ ही उस परिप्रेक्ष्य और ऊँचाई को निर्धारित करते हैं जिससे वे चीज़ों को देखते हैं।"
"तुम चीज़ों पर परमेश्वर का दृष्टिकोण वैसा नहीं देखोगे जैसा मनुष्य का होता है, और इसके अलावा, तुम चीज़ों को सँभालने के लिए उसे मनुष्य के दृष्टिकोण, उनके ज्ञान, उनके विज्ञान या उनके दर्शनशास्त्र या मनुष्य की कल्पना का उपयोग करते हुए नहीं देखोगे। इसके बजाय, परमेश्वर जो कुछ भी करता है और जो कुछ भी वह प्रकट करता है वह सत्य से जुड़ा होता है। अर्थात्, उसका कहा हर वचन और उसका किया हर कार्य सच से संबंधित है। यह सत्य कोई आधारहीन कल्पना नहीं है; यह सत्य और ये वचन परमेश्वर के सार और उसके जीवन के कारण परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए हैं। क्योंकि ये वचन और परमेश्वर द्वारा की गई हर चीज़ का सार, सत्य हैं, इसलिए हम कह सकते हैं कि परमेश्वर का सार पवित्र है। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक बात जो परमेश्वर कहता और करता है वह लोगों के लिए जीवन शक्ति और प्रकाश लाती है; यह लोगों को सकारात्मक चीज़ों को और उन सकारात्मक चीज़ों की वास्तविकता को देखने देती है और मनुष्य को रास्ता दिखाती है ताकि वे सही राह पर चलें। ये चीज़ें परमेश्वर के सार की वजह से निर्धारित की जाती हैं और ये परमेश्वर के सार की पवित्रता के कारण निर्धारित की जाती हैं।"
"क्या परमेश्वर के वर्तमान वचनों में प्रकट की जा रही हर चीज मानव जाति के भ्रष्ट स्वभाव के बारे में नहीं है? परमेश्वर का धर्मी स्वभाव और उसकी पवित्रता तुम्हारी अवधारणाओं और तुम्हारी उद्देश्यों के माध्यम से और तुम जो प्रकट करते हो उसके माध्यम से दिखाए जाते हैं। वह, गंदगी की भूमि में रहते हुए भी, गंदगी से जरा सा भी दूषित नहीं हुआ है। वह भी उसी गंदी दुनिया में रहता है जिसमें तुम रहते हो, किन्तु वह विचार-शक्ति और अंतर्दृष्टि से सम्पन्न है; वह गंदगी से नफ़रत करता है। तुम स्वयं अपने वचनों और क्रियाओं में गंदी चीजों को नहीं देख सकते हो, किन्तु वह देख सकता है-वह इन्हें तुम्हें दिखा सकता है। तुम्हारी वे पुरानी चीजें-तुममें सभ्यता, अंतर्दृष्टि और समझ का अभाव, तुम्हारी पिछड़ी जीवनशैली-अब उनके बारे में उसके खुलासे के माध्यम से अनावृत हो गई हैं। परमेश्वर इस तरह से कार्य करने के लिए पृथ्वी पर आया है, ताकि लोग उसकी पवित्रता और उसके धर्मी स्वभाव को देख लें। वह तुम्हारा न्याय करता है तुम्हें ताड़ना देता है और तुम्हें स्वयं के बारे में समझाता है। कभी-कभी तुम्हारी राक्षसी प्रकृति प्रकट हो जाती है और वह इसे तुम्हें दिखा सकता है। वह मानवजाति के सार को बहुत अच्छी तरह से जानता है। वह उसी तरह से रहता है जैसे तुम रहते हो, वही भोजन करता है जैसा तुम करते हो, उसी प्रकार के घर में रहता है जैसे में तुम रहते हो, फिर भी वह तुम्हारी तुलना में बहुत अधिक जानता है। किन्तु वह जिनसे सबसे ज्यादा नफ़रत करता है, वे हैं मानवजाति का जीवन का तत्वज्ञान और उनका धोखा और उनकी कुटिलता। वह इन चीज़ों से नफ़रत करता है और वह इन पर ध्यान देने का अनिच्छुक है। वह विशेष रूप से मानवजाति की दैहिक अंतःक्रियाओं से नफ़रत करता है। यद्यपि वह मानवीय अंतःक्रियाओं के कुछ सामान्य ज्ञान को पूरी तरह से नहीं समझता है, किन्तु वह पूरी तरह से अवगत हो जाता है, जब लोग अपना कुछ भ्रष्ट स्वभाव उजागर करते हैं। अपने कार्य में, वह लोगों में इन बातों के माध्यम से उनसे बोलता है और उन्हें शिक्षा देता है, और इनके माध्यम से वह लोगों का न्याय करता है और अपने धर्मी और पवित्र स्वभाव को प्रकट करता है। इस तरह से लोग उसके कार्य के लिए विषमता बन जाते हैं। यह केवल देहधारी परमेश्वर है जो मानवजाति के सभी प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों और शैतान के सभी बदसूरत चेहरों को प्रकट कर सकता है। वह तुम्हें दण्ड नहीं देता है, वह तुम्हें परमेश्वर की पवित्रता के लिए सिर्फ एक विषमता बनवाएगा, और फिर तुम अपने आप में अडिग नहीं रह सकते हो क्योंकि तुम अत्यधिक गंदे हो। वह उन चीजों के माध्यम से बोलता है जो लोग प्रकट करते हैं और वह उन्हें उजागर करता है ताकि लोग जान सकें कि परमेश्वर कितना पवित्र है। वह मनुष्य में थोड़ी सी भी गंदगी, यहाँ तक कि उनके हृदयों या वचनों और क्रियाओं में सूक्ष्मतम गंदे विचार भी नहीं छोड़ेगा जो उसकी इच्छा के अनुरूप नहीं हैं। उसके वचनों के माध्यम से, किसी भी व्यक्ति में और किसी भी चीज़ में गंदगी नहीं रहेगी-यह सब उजागर हो जाएगा। केवल तभी तुम देखते हो कि वह वास्तव में लोगों से भिन्न है। वह मानव जाति में थोड़ी सी भी गंदगी से पूरी तरह से घृणा करता है। कभी-कभी लोग भी नहीं समझते हैं, और कहते हैं: "परमेश्वर, तू हमेशा क्यों नाराज़ रहता है? तू मानवजाति की कमजोरियों के प्रति विचारशील क्यों नहीं हैं? तुझमें मानवजाति के लिए थोड़ी सी क्षमा क्यों नहीं है? तू मनुष्य के प्रति इतना विचारशून्य क्यों हैं? तू जानता है कि लोग कितने भ्रष्ट हैं, तब भी तू लोगों के साथ इस तरह से व्यवहार क्यों करता है?" वह पाप से घृणा करता है; वह पाप से नफ़रत करता है। वह विशेष रूप से ऐसी किसी भी विद्रोहशीलता से घृणा करता है जो तुम में हो सकती है। जब तुम किसी विद्रोही स्वभाव को उजागर करते हो तो वह हद से ज्यादा घृणा करता है। इन्हीं चीज़ों के माध्यम से उसका स्वभाव और अस्तित्व व्यक्त किया जा सकता है। जब तुम इसकी अपने-आप से तुलना करोगे, तो तुम देखोगे कि यद्यपि वह वही भोजन खाता है, वही कपड़े पहनता है, और वही आनंद लेता है जैसा लोग लेते हैं, यद्यपि वह मानवजाति के पास-पास और साथ रहता है, किन्तु वह वही नहीं है। क्या यह एक विषमता होने का असली अर्थ नहीं है? यह लोगों में इन्हीं बातों के माध्यम से है कि परमेश्वर की महान सामर्थ्य स्पष्ट रूप से दिखाई देती है; यह अंधकार है जो प्रकाश के अनमोल अस्तित्व को उभारता है।"
"वह मनुष्य के सार से अच्छी तरह से अवगत है, वह सभी प्रकार के लोगों से सम्बन्धित सभी प्रकार के अभ्यासों को प्रकट कर सकता है। वह मानव के भ्रष्ट स्वभाव और विद्रोही व्यवहार को भी बेहतर ढंग से प्रकट करता है। वह सांसारिक लोगों के बीच नहीं रहता है, परन्तु वह नश्वरों की प्रकृति और सांसारिक लोगों की समस्त भ्रष्टता से अवगत है। यही वह है। यद्यपि वह संसार के साथ निपटता नहीं है, फिर भी वह संसार के साथ निपटने के नियमों को जानता है, क्योंकि वह मानवीय प्रकृति को पूरी तरह से समझता है। वह पवित्रात्मा के आज और अतीत दोनों के कार्य के बारे में जानता है जिसे मनुष्य की आँखें नहीं देख सकती हैं और जिसे मनुष्य के कान नहीं सुन सकते हैं। इसमें बुद्धि शामिल है जो कि जीवन का फ़लसफ़ा और आश्चर्य नहीं है जिसकी थाह पाना मनुष्य को कठिन जान पड़ता है। यही वह है, लोगों के लिए खुला और लोगों से छिपा हुआ भी। जो कुछ वह व्यक्त करता है वह ऐसा नहीं है जैसा एक असाधारण मनुष्य होता है, बल्कि पवित्रात्मा के अंतर्निहित गुण और अस्तित्व हैं। वह दुनिया भर में यात्रा नहीं करता है परन्तु उसकी हर चीज़ को जानता है। वह "वन-मानुषों" के साथ सम्पर्क करता है जिनके पास कोई ज्ञान या अंतर्दृष्टि नहीं होती है, परन्तु वह ऐसे वचनों को व्यक्त करता है जो ज्ञान से ऊँचे और महान मनुष्यों से ऊपर होते हैं। वह मंदबुद्धि और संवेदनशून्य लोगों के समूह के बीच रहता है जिनमें मानवता नहीं है और जो मानवीय परम्पराओं और जीवनों को नहीं समझते हैं, परन्तु वह मनुष्यजाति से सामान्य मानवता का जीवन जीने के लिए कह सकता है, साथ ही मनुष्यजाति की नीच और अधम मानवता को प्रकट करता है। यह सब कुछ वही है जो वह है, किसी भी माँस और लहू के व्यक्ति की अपेक्षा अधिक ऊँचा है। उसके लिए, यह अनावश्यक है कि वह उस कार्य को करने के लिए जिसे उसे करने की आवश्यकता है और भ्रष्ट मनुष्यजाति के सार को पूरी तरह से प्रकट करने के लिए जटिल, बोझिल और पतित सामाजिक जीवन का अनुभव करे। पतित सामाजिक जीवन उसकी देह को शिक्षित नहीं करता है। उसके कार्य और वचन मनुष्य की अवज्ञा को ही प्रकट करते हैं और संसार के साथ निपटने के लिए मनुष्य को अनुभव और सबक प्रदान नहीं करते हैं। जब वह मनुष्य को जीवन की आपूर्ति करता है तो उसे समाज या मनुष्य के परिवार की जाँच-पड़ताल करने की आवश्यकता नहीं होती है। मनुष्य को उजागर करना और उसका न्याय करना उसकी देह के अनुभवों की अभिव्यक्ति नहीं है; यह लम्बे समय तक मनुष्य की अवज्ञा को जानने के बाद मनुष्य की अधार्मिकता को प्रकट करने और मनुष्यजाति की भ्रष्टता से घृणा करने के लिए है। जिस कार्य को परमेश्वर करता है वह सब मनुष्य के सामने अपने स्वभाव को प्रकट करने और अपने अस्तित्व को व्यक्त करने के लिए है। केवल वही इस कार्य को कर सकता है, यह कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे माँस और लहू का व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। परमेश्वर के कार्य के लिहाज से, मनुष्य यह नहीं बता सकता कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है। मनुष्य परमेश्वर के कार्य के आधार पर भी उसे एक सृजित किए गए व्यक्ति के रूप में वर्गीकृत करने में असमर्थ है। उसका वह होना भी उसे एक सृजित किए गए प्राणी के रूप में वर्गीकृत करने में असमर्थ बनाता है। मनुष्य उसे केवल एक ग़ैर-मानव मान सकता है, किन्तु वह यह नहीं जानता है कि उसे किस श्रेणी में रखा जाए, इसलिए मनुष्य उसे परमेश्वर की श्रेणी में सूचीबद्ध रखने के लिए मज़बूर है। मनुष्य के लिए ऐसा करना अतर्कसंगत नहीं है, क्योंकि परमेश्वर ने लोगों के बीच बहुत सा कार्य किया है जिसे करने में मनुष्य असमर्थ है।"
"स्वयं परमेश्वर में अवज्ञा का तत्व नहीं है; उसका सार अच्छा है। वह समस्त सुन्दरता और अच्छाई की और साथ ही समस्त प्रेम की अभिव्यक्ति है। यहाँ तक कि शरीर में भी, परमेश्वर ऐसा कुछ नहीं करता है जिससे परमपिता परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन होता हो। यहाँ तक कि अपने जीवन का बलिदान करने की कीमत पर भी, वह सम्पूर्ण हृदय से तैयार रहेगा और कोई अन्य विकल्प नहीं बनाएगा। परमेश्वर के पास आत्मतुष्टि और आत्म-महत्व के, या दंभ या दर्प के कोई तत्व नहीं हैं; उसमें कुटिलता के कोई तत्व नहीं हैं। जो कोई भी अवज्ञा करता है वह शैतान की ओर से आता है; शैतान समस्त कुरूपता तथा दुष्टता का स्रोत है। मनुष्य में शैतान के सदृश विशेषताएँ होने का कारण यह है कि शैतान द्वारा मनुष्य को भ्रष्ट किया गया तथा उस पर कार्य किया गया है। मसीह शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किया गया है, अतः उसके पास केवल परमेश्वर की विशेषताएँ हैं तथा शैतान की एक भी नहीं है। इस बात की परवाह किए बिना कि कार्य कितना कठिन है या देह कितना निर्बल है, परमेश्वर, जब वह देह में रहता है, कभी भी ऐसा कुछ नहीं करेगा जिससे स्वयं परमेश्वर का कार्य बाधित होता हो, अवज्ञा में परमपिता परमेश्वर की इच्छा का परित्याग तो बिल्कुल नहीं करेगा। वह परमपिता परमेश्वर की इच्छा के विपरीत जाने के बजाए शरीर में पीड़ा सह लेगा; यह बिलकुल वैसा ही है जैसा यीशु ने प्रार्थना में कहा, "हे मेरे पिता, यदि हो सके तो यह कटोरा मुझ से टल जाए, तौभी जैसा मैं चाहता हूँ वैसा नहीं, परन्तु जैसा तू चाहता है वैसा ही हो।" मनुष्य चुनाव करेगा किन्तु मसीह नहीं करेगा। यद्यपि उसके पास स्वयं परमेश्वर की पहचान है, फिर भी वह परमपिता परमेश्वर की इच्छा की तलाश करता है, तथा जो कार्य उसे परमपिता परमेश्वर द्वारा सौंपा गया है उसे देह के दृष्टिकोण से पूरा करता है। यह कुछ ऐसा है जो मनुष्य के लिए अप्राप्य है।"
स्रोत: यीशु मसीह का अनुसरण करते हुए
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