भ्रष्ट मानवता को आवश्यकता है परमेश्वर द्वारा उद्धार की
प्रभु यीशु द्वारा अनुग्रह के युग में फैलाया गया संदेश केवल पश्चाताप का मार्ग था
संदर्भ के लिए बाइबल के पद:
"मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है" (मत्ती 4:17)।
"क्योंकि यह वाचा का मेरा वह लहू है, जो बहुतों के लिये पापों की क्षमा के निमित्त बहाया जाता है" (मत्ती 26:28)।
"तब उस ने पवित्रशा स्त्र बूझने के लिये उनकी समझ खोल दी, और उनसे कहा, 'यों लिखा है कि मसीह दु:ख उठाएगा, और तीसरे दिन मरे हुओं में से जी उठेगा, और यरूशलेम से लेकर सब जातियों में मन फिराव का और पापों की क्षमा का प्रचार, उसी के नाम से किया जाएगा'" (लूका 24:45-47)।

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
आरम्भ में, यीशु ने सुसमाचार को फैलाया और पश्चाताप के मार्ग का उपदेश दिया, फिर वह मनुष्य को बपतिस्मा देने लगा, बीमारों को चंगा करने लगा, और दुष्टात्माओं को निकालने लगा। अंत में, उसने मानवजाति को पाप से छुटकारा दिलाया और सम्पूर्ण युग के अपने कार्य को पूरा किया।
- "देहधारण का रहस्य (1)" से उद्धृत
जो कार्य यीशु ने किया वह उस युग में मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुसार था। उसका कार्य मानवजाति को छुटकारा दिलाना, उन्हें उनके पापों के लिए क्षमा करना था, और इसलिए उसका स्वभाव पूरी तरह से विनम्रता, धैर्य, प्रेम, धर्मपरायणता, सहनशीलता, दया और करुणामय-प्यार से भरा था। उसने मानवजाति को प्रचुरता से धन्य किया और वह उनके लिए ढेर सारा अनुग्रह लाया, और वे सभी चीज़ें जिनका वे संभवतः आनन्द ले सकते थे, उसने उन्हें उनके आनंद के लिए दी: शांति और प्रसन्नता, अपनी सहनशीलता और प्रेम, अपनी दया और अपना करुणामय-प्यार। उन दिनों, वह सब जिनसे मनुष्य का सामना होता था, वह थीं उसके आनन्द की ढेर सारी चीज़ें: उनके हृदय शांत और आश्वस्त थे, उनकी आत्माओं को सान्त्वना थी, और उन्हें उद्धारकर्ता यीशु द्वारा जीवित रखा गया था। वे इन चीज़ों को प्राप्त कर सके, यह उस युग का एक परिणाम था जिसमें वे रहते थे। अनुग्रह के युग में, मनुष्य पहले से ही शैतान की भ्रष्टता से गुज़र चुका था, इसलिए समस्त मानवजाति को छुटकारा देने के कार्य में अनुग्रह की भरमार, अनन्त सहनशीलता और धैर्य, और उससे भी बढ़कर, मानवजाति के पापों का प्रयाश्चित करने के लिए पर्याप्त बलिदान की आवश्यकता थी ताकि इसके प्रभाव तक पहुँचा जा सके। अनुग्रह के युग में मानवजाति ने जो देखा, वह मानवजाति के पापों के प्रायश्चित के लिए मेरी भेंट मात्र था, अर्थात्, यीशु। वे केवल इतना ही जानते थे कि परमेश्वर दयावान और सहनशील हो सकता है, और उन्होंने केवल यीशु की दया और करुणामय-प्रेम को देखा था। ऐसा पूरी तरह से इसलिए था क्योंकि वे अनुग्रह के युग में रहते थे। इसलिए, इससे पहले कि उन्हें छुटकारा दिया जा सके, उन्हें कई प्रकार के अनुग्रह का आनन्द उठाना था जो यीशु ने उन्हें प्रदान किए थे; केवल यही उनके लिए लाभदायक था। इस तरह, उनके द्वारा अनुग्रह का आनन्द उठाने के माध्यम से उनके पापों को क्षमा किया जा सकता था, यीशु की सहनशीलता और धीरज का आनन्द उठाने के माध्यम से उनके पास छुटकारा पाने का एक अवसर भी हो सकता था। केवल यीशु की सहनशीलता और धैर्य के माध्यम से ही उन्होंने क्षमा पाने का अधिकार प्राप्त किया और यीशु के द्वारा दिए गए अनुग्रह की भरमार का आनन्द उठाया-वैसे ही जैसे कि यीशु ने कहा था: मैं धार्मिकों को नहीं बल्कि पापियों को छुटकारा दिलाने, पापियों को उनके पापों से क्षमा किए जाने में मदद करने आया हूँ। ...जितना ज़्यादा प्रेम यीशु ने मानवजाति को उसके पापों को क्षमा करते हुए और उन पर पर्याप्त दया और करुणामय-प्रेम लाते हुए किया, उतना ही ज़्यादा मानवजाति ने बचाए जाने, खोई हुई भेड़ कहलाने की क्षमता प्राप्त की जिन्हें यीशु ने बड़ी कीमत देकर वापिस खरीदा था। शैतान इस काम में गड़बड़ी नहीं डाल सकता था, क्योंकि यीशु ने अपने अनुयायियों के साथ इस तरह से व्यवहार किया था जैसे एक करुणामयी माता अपने नवजात को अपने आलिंगन में लेकर करती है। वह उन पर क्रोधित नहीं हुआ या उनका तिरस्कार नहीं किया, बल्कि सांत्वना से भरा हुआ था; वह उनके बीच कभी भी अचानक बहुत क्रोधित नहीं हुआ; बल्कि उनके पापों के साथ धैर्य रखा और उनकी मूर्खता और अज्ञानता के प्रति आँखें मूँद ली, यह कह कर कि "दूसरों को सत्तर गुना सात बार क्षमा करो।" इसलिए उसके हृदय ने दूसरों के हृदयों को रूपांतरित कर दिया। इसी तरह से लोगों ने उसकी सहनशीलता के माध्यम से अपने पापों से क्षमा प्राप्त की।
- "छुटकारे के युग में कार्य के पीछे की सच्ची कहानी" से उद्धृत
उस समय, यीशु ने अनुग्रह के युग में अपने अनुयायियों को उपदेशों की एक श्रृंखला कही, जैसे कि कैसे अभ्यास करें, कैसे एक साथ इकट्ठा हों, प्रार्थना में कैसे माँगें, दूसरों के साथ कैसे व्यवहार करें इत्यादि। जो कार्य उसने किया वह अनुग्रह के युग का था, और उन्होंने केवल यह प्रतिपादित किया कि शिष्य और वे लोग जिन्होंने परमेश्वर का अनुसरण किया, कैसे अभ्यास करें। उसने केवल अनुग्रह के युग का ही कार्य किया और अंत के दिनों का कोई कार्य नहीं किया। ...यीशु ने अंत के दिनों के केवल चिह्नों के बारे में बात की, इस बारे में बात की कि किस प्रकार से धैर्यवान बनें और कैसे बचाए जाएँ, कैसे पश्चाताप करें और स्वीकार करें, और साथ ही सलीब को कैसे सहें, और साथ ही पीड़ाओं को कैसे सहन करें; उन्होंने कभी भी नहीं कहा कि अंत के दिनों में मनुष्य को किस प्रकार प्रवेश करना चाहिए या परमेश्वर की इच्छा को किस प्रकार से संतुष्ट करें।
- "मनुष्य, जिसने परमेश्वर को अपनी ही धारणाओं में सीमित कर दिया है, वह किस प्रकार उसके प्रकटनों को प्राप्त कर सकता है?" से उद्धृत
यीशु का काम केवल मनुष्य के उद्धार और क्रूसित होने के लिए था। इस प्रकार, किसी भी व्यक्ति को जीतने के लिए उसे अधिक वचन कहने की कोई जरूरत नहीं थी। उसने जो कुछ भी सिखाया उसमें से काफी कुछ शास्त्रों के शब्दों से लिया गया था, और भले ही उसका काम शास्त्रों से आगे नहीं बढ़ा, फिर भी वह क्रूसित होने के काम को पूरा कर पाया। उसका काम वचन का नहीं था, न ही मानव जाति पर विजय पाने के लिए था, बल्कि मानव जाति का उद्धार करने के लिए था। उसने मानव जाति के लिए बस पापबलि का काम किया, मानव जाति के लिए वचन के स्रोत के समान कार्य नहीं किया।
- "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (1)" से उद्धृत
जब यीशु अपना काम कर रहा था, तो उसके बारे में मनुष्य का ज्ञान तब भी अज्ञात और अस्पष्ट था। मनुष्य ने हमेशा यह विश्वास किया कि वह दाऊद का पुत्र है और उसके एक महान भविष्यद्वक्ता और उदार प्रभु होने की घोषणा की जो मनुष्य को पापों से छुटकारा देता था। विश्वास के आधार पर मात्र उसके वस्त्र के छोर को छू कर ही कुछ लोग चंगे हो गए थे; अंधे देख सकते थे और यहाँ तक कि मृतक को जिलाया भी जा सकता था। हालाँकि, मनुष्य अपने भीतर गहराई से जड़ जमाए हुए शैतानी भ्रष्ट स्वभाव को नहीं समझ सका और न ही मनुष्य यह जानता था कि उसे कैसे दूर किया जाए। मनुष्य ने बहुतायत से अनुग्रह प्राप्त किया, जैसे देह की शांति और खुशी, एक व्यक्ति के विश्वास करने पर पूरे परिवार की आशीष, और बीमारियों से चंगाई, इत्यादि। शेष मनुष्य के भले कर्म और उसका ईश्वर के अनुरूप प्रकटन था; यदि मनुष्य इस तरह के आधार पर जीवन जी सकता था, तो उसे एक उपयुक्त विश्वासी माना जाता था। केवल ऐसे विश्वासी ही मृत्यु के बाद स्वर्ग में प्रवेश कर सकते थे, जिसका अर्थ है कि उन्हें बचा लिया गया था। परन्तु, अपने जीवन काल में, उन्होंने जीवन के मार्ग को बिलकुल भी नहीं समझा था। वे बस एक निरंतर चक्र में पाप करते थे, फिर पाप-स्वीकारोक्ति करते थे और अपना स्वभाव बदलने के पथ पर कोई प्रगति नहीं करते थे: अनुग्रह के युग में मनुष्य की दशा ऐसी ही थी। क्या मनुष्य ने पूर्ण उद्धार पा लिया है? नहीं!
- "देहधारण का रहस्य (4)" से उद्धृत
यद्यपि मनुष्य को छुटकारा दिया गया है और उसके पापों को क्षमा किया गया है, फिर भी इसे केवल इतना ही माना जा सकता है कि परमेश्वर मनुष्य के अपराधों का स्मरण नहीं करता है और मनुष्य के अपराधों के अनुसार मनुष्य से व्यवहार नहीं करता है। हालाँकि, जब मनुष्य जो देह में रहता है, जिसे पाप से मुक्त नहीं किया गया है, वह भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को अंतहीन रूप से प्रकट करते हुए, केवल पाप करता रह सकता है। यही वह जीवन है जो मनुष्य जीता है, पाप और क्षमा का एक अंतहीन चक्र। अधिकांश मनुष्य दिन में सिर्फ इसलिए पाप करते हैं ताकि शाम को स्वीकार कर सकें। इस प्रकार, भले ही पापबलि मनुष्य के लिए सदैव प्रभावी है, फिर भी यह मनुष्य को पाप से बचाने में समर्थ नहीं होगी। उद्धार का केवल आधा कार्य ही पूरा किया गया है, क्योंकि मनुष्य में अभी भी भ्रष्ट स्वभाव है।
- "देहधारण का रहस्य (4)" से उद्धृत
अनुग्रह के युग में पश्चाताप के सुसमाचार का उपदेश दिया गया, और कहा गया कि यदि मनुष्य विश्वास करता है, तो उसे बचाया जाएगा। आज, उद्धार के स्थान पर केवल विजय और पूर्णता की बात होती है। ऐसा कभी नहीं कहा जाता है कि यदि एक व्यक्ति विश्वास करता है, तो उसका पूरा परिवार धन्य हो जाएगा, या कि उद्धार एक बार और सदा के लिए हो जाता है। आज, कोई इन वचनों को नहीं बोलता है, और ऐसी चीजें पुरानी हो गई हैं। उस समय यीशु का कार्य समस्त मानव जाति के छुटकारा का था। उन सभी के पापों को क्षमा कर दिया गया था जो उसमें विश्वास करते थे; जितने समय तक तुम उस पर विश्वास करते थे, उतने समय तक वह तुम्हें छुटकारा देगा; यदि तुम उस पर विश्वास करते थे, तो तुम अब और पापी नहीं थे, तुम अपने पापों से मुक्त हो गए थे। यही है बचाए जाने, और विश्वास द्वारा उचित ठहराए जाने का अर्थ। फिर भी जो विश्वास करते थे उन लोगों के बीच, वह रह गया था जो विद्रोही था और परमेश्वर का विरोधी था, और जिसे अभी भी धीरे-धीरे हटाया जाना था। उद्धार का अर्थ यह नहीं था कि मनुष्य पूरी तरह से यीशु द्वारा प्राप्त कर लिया गया था, लेकिन यह कि मनुष्य अब और पापी नहीं था, कि उसे उसके पापों से क्षमा कर दिया गया था: बशर्ते कि तुम विश्वास करते थे कि तुम कभी भी अब और पापी नहीं बनोगे।
- "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (2)" से उद्धृत
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