2. परमेश्वर से नेकी और ईमानदारी के साथ प्रार्थना करो
एक बार प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों से कहा: "जब तू प्रार्थना करे, तो कपटियों के समान न हो, क्योंकि लोगों को दिखाने के लिये आराधनालयों में और सड़कों के मोड़ों पर खड़े होकर प्रार्थना करना उनको अच्छा लगता है। मैं तुम से सच कहता हूँ कि वे अपना प्रतिफल पा चुके। परन्तु जब तू प्रार्थना करे, तो अपनी कोठरी में जा; और द्वार बन्द कर के अपने पिता से जो गुप्त में है प्रार्थना कर। तब तेरा पिता जो गुप्त में देखता है, तुझे प्रतिफल देगा" (मत्ती 6:5-6)। बाइबल में लिखी बातों से हम देख सकते हैं कि जब फरीसी प्रार्थना किया करते थे, तो वे अक्सर लोगों की भीड़ वाली जगह चुनना पसंद करते थे। प्रार्थना करने के लिए उन्हें यहूदियों के मंदिरों में या चौराहों पर खड़े होने में मज़ा आता था, और फिर वे अक्सर पवित्रशास्त्र का पाठ करते और लंबी, खोटी प्रार्थनाएँ किया करते थे। यह सब दूसरों को दिखाने के लिए किया जाता था, ताकि दूसरे उन्हें भक्तिपूर्ण और धर्मनिष्ठ समझें, और इस तरह लोगों की प्रशंसा मिले और लोग उन्हें ऊँची नज़रों से देखें। उस तरह की प्रार्थना खुद को ऊपर उठाने और दिखावा करने के अलावा और कुछ नहीं है; यह परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश करना है। इसीलिए प्रभु यीशु ने कहा था कि फरीसी पाखंडी थे, और उनकी प्रार्थना पाखंडी थी, प्रभु की नज़रों में घृणा के योग्य थी। सोच कर देखो, कई बार जब हम प्रार्थना करते हैं, तो हममें भी गलत उद्देश्य होते हैं। उदाहरण के तौर पर, सभाओं में प्रार्थना करते समय, हम परमेश्वर से अपनी सच्ची कठिनाइयों या भ्रष्टता के बारे में बातें नहीं करते हैं, उससे अपने दिल की बात नहीं कहते हैं, और उससे हमारी अगुआई और मार्गदर्शन करने के लिए नहीं कहते हैं। इसके बजाय, हम अलंकृत शब्द बोलते हैं और खोखली प्रशंसा करते हैं, अन्यथा हम बाइबल के अध्यायों का पाठ करते हैं या पवित्रशास्त्र के बारे में बोलते रहते हैं, क्योंकि हम सोचते हैं कि जो भी शास्त्रों को अधिक याद कर लेता है और अधिक वाक्पटुता से प्रार्थना करता है, वही बेहतर प्रार्थना करता है। हम यह भी सोचते हैं कि जितनी अधिक बार हम रात के अंतिम पहर में और शाम को प्रार्थना करते हैं, जितना अधिक हम भोजन से पहले प्रार्थना करते हैं और खाने के बाद परमेश्वर की कृपा के लिए धन्यवाद करते हैं, और जितना अधिक समय हम इन चीज़ों पर खर्च करते हैं, हम उतने ही अधिक आध्यात्मिक और भक्तिपूर्ण बन जाएँगे। हमें लगता है कि इस तरह से प्रार्थना करना प्रभु की इच्छा के अधिक अनुरूप होता है। वास्तव में, उस तरह से प्रार्थना करना हमारे दिलों को प्रभु के साथ साझा करना नहीं है और यह वास्तव में उसकी उपासना नहीं है। इसके बजाय, यह हमारे अपने उद्देश्यों और लक्ष्यों से चिपके रहना है, और यह दूसरों को बताने के लिए है कि हम कितनी अच्छी तरह खोज करते हैं, जबकि हम इसका इस्तेमाल दिखावा करने के लिए करते हैं। इस तरह की प्रार्थना केवल रटी हुई, सिर्फ ऊपरी होती है, और यह एक धार्मिक रिवाज के रूप में प्रार्थना करना है। यह परमेश्वर के प्रति बेपरवाही और उसे बेवकूफ बनाने की कोशिश है, जिससे उसे घृणा हो जाती है। प्रभु यीशु ने कहा, "परमेश्वर आत्मा है, और अवश्य है कि उसकी आराधना करनेवाले आत्मा और सच्चाई से आराधना करें" (यूहन्ना 4:24)। परमेश्वर सृष्टि का प्रभु है, इसलिए जब हम सर्जित प्राणी सृष्टिकर्ता के सामने प्रार्थना करें, तो हमारे पास एक भयपूर्ण ह्रदय होना चाहिए और हमें ईमानदारी से उसकी उपासना करनी चाहिए, उसकी निगरानी को स्वीकार करना चाहिए, और परमेश्वर से खुलकर और ईमानदारी से बात करनी चाहिए। केवल इस तरह की प्रार्थना ही परमेश्वर को प्रसन्न करती है।
3. परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए प्रार्थना करो
मत्ती 6:9-10,13 में प्रभु यीशु ने कहा: "अत: तुम इस रीति से प्रार्थना किया करो: हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है; तेरा नाम पवित्र माना जाए। 'तेरा राज्य आए। तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी होती है, वैसे पृथ्वी पर भी हो। ...और हमें परीक्षा में न ला, परन्तु बुराई से बचा।" जबसे शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट किया गया है, परमेश्वर मानवता को बचाने का कार्य कर रहा है, ताकि हम बुराई से रिहाई पा सकें, शैतान के बंधन और नुकसान से बच सकें, और अंततः हम परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जा सकें। इसलिए परमेश्वर उम्मीद करता है कि लोग उसके सामने आने में सक्षम हों और उसके उद्धार को स्वीकार करें। वह यह भी उम्मीद करता है कि लोग उसके वचनों के अनुसार जिएँ और सर्वोपरि उसका सम्मान करें। यही कारण है कि हमारी प्रार्थनाओं में, हम केवल अपने लिए आग्रह नहीं कर सकते हैं। हमें परमेश्वर की इच्छा पर भी विचार करना होगा, पृथ्वी पर परमेश्वर की इच्छा पूर्ण हो, पृथ्वी पर मसीह का राज्य आए और परमेश्वर का सुसमाचार दुनिया के हर कोने में फैल जाए इसके लिए प्रार्थना करनी होगी। यह अभ्यास का एक और मार्ग है जिसके द्वारा ईसाई प्रार्थना परमेश्वर की इच्छा के अनुसार हो सकती है। उदाहरण के लिए, जब हम सुसमाचार का प्रसार करते समय विभिन्न कठिनाइयों, उपहास और कष्टों का सामना करते हैं और हम कमज़ोर और नकारात्मक महसूस करते हैं, तो हमें विश्वास और शक्ति के लिए नेकी से परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए ताकि हम देहासक्ति को त्याग सकें, सभी कठिनाइयों को दूर कर सकें, और दुश्मन की ताक़तों के अधीन न हो जाएँ। जब हम काम और प्रचार कर रहे हों, तो हमें एक ज़िम्मेदारी के साथ परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह हमें प्रबुद्ध करे और उसके वचनों को समझने में हमारा मार्गदर्शन करे, ताकि हम सभाओं के दौरान उसकी इच्छा को सहभागिता में साझा कर सकें। तब हम अपने भाइयों और बहनों को परमेश्वर के वचनों के अभ्यास और अनुभव में ले जा सकते हैं और उन्हें परमेश्वर के सामने ला सकते हैं। जब हम कलीसिया में अनैतिक, बुरी चीज़ों को देखते हैं, तो हमें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उससे विश्वास और साहस, साथ ही शैतान की चालों को देख पाने और परमेश्वर के घर के हितों को बनाए रखने की खातिर सच्चाई को समझ सकने की माँग करनी चाहिए, और इसी तरह और भी। अगर हम बार-बार यह प्रार्थना करें कि परमेश्वर का राज्य आए और उसकी इच्छा पूरी हो, और अगर हम यथाशक्ति उसके सुसमाचार के प्रसार में अपना योगदान कर सकते हैं, तो परमेश्वर हमारी प्रार्थनाओं को स्वीकार करेगा और वे उसकी इच्छा के अनुरूप होंगी। वास्तव में, बाइबल में कुछ ऐसी प्रार्थनाएँ हैं जिनको परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त हुई थी, जैसे कि राजा दाऊद का यहोवा के लिए एक मंदिर का निर्माण करना ताकि लोग उसके भीतर परमेश्वर की आराधना कर सकें। उसने अक्सर इसके लिए परमेश्वर से प्रार्थना की थी, और फिर उसने इसे अभ्यास में डाला था। उन निवेदनों ने परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त की, और अंत में दाऊद परमेश्वर की इच्छा के अनुकूल बन गया। सुलैमान के राजा बनने के बाद जब परमेश्वर उसे एक सपने में दिखाई दिया, और उससे यह पूछा कि वह क्या माँगेगा, तो सुलैमान ने धन या लंबा जीवन नहीं माँगा, बल्कि इसके बजाय उसने यह माँगा कि परमेश्वर उसे ज्ञान प्रदान करे ताकि वह परमेश्वर की प्रजा पर बेहतर शासन कर सके, और तब उसके लोग परमेश्वर की उपासना बेहतर कर सकें। परमेश्वर ने उसकी प्रार्थनाओं को मंजूरी दे दी, और न केवल उसे ज्ञान प्रदान किया, बल्कि उसे दौलत और लंबी उम्र भी दी जो उसने माँगी तक नहीं थीं। यह स्पष्ट है कि परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए प्रार्थना करना एक ऐसी प्रार्थना है जो पूरी तरह से उसकी इच्छा के अनुरूप है।